कि अब तुम्हें वही घर पिंजरा सा लगता है, छठपटाहट बेइंतेहा है
उसी दौड़ में वापस जाने की
अब जब मिल गया वो जो पाने की चाहत थी
पूछ लेना कभी
कि कहीं अब तुम तो पिंजरे में बंद नहीं और वो चिड़िया और जानवर
आज़ाद है
कहती रही प्रकृति सदियों से की विनाश के खाते बंद कर दो मगर तुम
न माने
अनसुना होने के बाद उसी ने अपने हिसाब से बही खाते सही कराये
तब आसमान काला था, सांस ज़हर थी, बस कंक्रीट के जंगल ही
जंगल थे
अब आसमान नीला हो गया है और तुम्हारे घर से देखो वो पहाड़ भी
साफ़ दिखाई देते हैं
अब कोई और आज़ादी महसूस कर रहा है
वो सड़क पे गाडी नहीं,देखो एक मस्त हाथी जा रहा है
वो पार्क में तुम्हारे जॉगिंग ट्रैक पे वो गिलहरी फर्राटा भर रही है
बालकनी पे तुम्हारी जगह एक चिड़िया बैठी अपनी भाषा में ख़ुशी
इज़हार कर रही है
सड़कों पे गाड़ियों के चिल्लाते हॉर्न की जगह अब उन्ही की आवाज़
सुनाई देती है
जंगलों में वो सब अपना वर्चस्व कायम कर रहे हैं जो शुरू से ही
उनका था
पूछ लेना… हर बार
जब जब नेता वोट मांगने आये दरवाज़े पे
मज़हब के नाम पे बांटने
अपने राजनीतिक चूल्हे को जलाये रख , उस पर सियासी मुद्दों की
रोटियां सेंकने
कि ज़रुरत के वक़्त वो सफ़ेद कोट वालों का सामन कहाँ था ?
क्यों सरकारी कुम्भकर्ण देर तक सोया था
पैसे वाले तो जहाज़ से आ गए , गरीब पैदल ही अपने घर की राह चल
निकला
दिया तो जला दोगे अभी ,बेरोज़गारी का अँधेरा किस दिए की रौशनी
से भगाओगे
खाली हाथ बीमारी मारे न मारे, बेरोज़गारी ज़रूर मार डालेगी
जो रस्ते में ही गुज़र गए, उनके घर पे अब क्या चूल्हा जलेगा जब चूल्हा
जलाने वाला ही न रहा
मदद के लिए बढ़े सरकारी हाथों पे भी किसी मंत्री के नाम का
विज्ञापन क्यों है
पूछ लेना कभी… कि तुम क्या कर रहे थे अभी तक
जिस वक़्त के न होने की शिकायत कर रहे थे वो तो शुरू से ही पास
था
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Pic by @manjulika5 (Twitter) |
वो शाम को swiggy और zomato का नंबर मिलाने को बेताब हाथ
अब घर के किचन में नया कुछ सीख रहे हैं , कभी मजबूरी में, कभी यूँ
ही
अब बच्चों की ज़िन्दगी में रंग youtube की जगह crayons और water
colour बिखेर रहे हैं
धूल खाती उस अधूरी अनपढ़ी किताब को अब एक किताबी कीड़ा
खा रहा है – तुम
सफ़ेद कागज़ रंगीन होते जा रहे हैं
कोरी कल्पना अब आकार लेने लग गयी है
सूरज के सारे रंग अब मालूम पड़ने लग गए हैं
वो गुलाबी सूरज चाहत है या वो हल्का पीला वाला ?
पूछना ज़रूर …अपने आप से
क्या अब चिड़ियाघर में बंद उस जानवर की तकलीफ महसूस होती है
अनजाने चेहरे जब दूसरों की मदद के लिए अपने दिल खोल देते हैं ,
तब इंसानियत भी शुक्रगुज़ार होती है
वो सफ़ेद कोट वाला अब इज़्ज़त का हक़दार महसूस होता है न ?
रोज़ की ज़रूरी दिखने वाले काम भी फालतू हो गए हैं न ?
खाम्खा घूमना अब ज़रूरी नहीं न ?
पूछ लेना खुद से .. जो वक़्त तब से ढूंढ रहे थे … अब मिल गया न ?
ज़िन्दगी शायद वो नीलेश मिश्रा के उस स्लो इंटरव्यू की तरह आकर
थोड़ी धीमी हो गयी है
तुम्हारे ही पहलू में …..
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Pic by @Nawaaban (Twitter) |
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Thought behind this- In this lockdown people are complaining about having too much time now... These lines ask people to stop and think about the various things now in the free time that they have.