Saturday, August 15, 2015

मैं डरता हूँ यादों से




मैं डरता हूँ, मैं बेबस हूँ

मैं डरता हूँ तेरी यादों से

मैं बेबस हूँ तेरे पास न होने से

अपने ही शहर की भीड़ से डरता हूँ मैं की कहीं तुझसे आमना सामना न हो जाए किसी पल 

घर से निकलते ही खौफ का एक मंज़र है की कहीं तेरा दीदार होते ही दिल दर्द से रो न पड़े

अभी तो सिर्फ टूटा है, तब शायद बिखर ही जायेगा

मैं डरता हूँ उन्ही सड़कों से जिस पे तुम्हारे साथ चला था

कदम कदम पर तुम्हारी यादें यूँ मेरा इंतज़ार कर रही हैं

पुराने वक़्त की यादें जैसे हर वक़्त मुझे अपने पास बुलाती हैं , पर जाने से डरता हूँ.. जैसे एक बार बुला लेंगी तो फिर वापस जाने नहीं देंगी

तब का तुम्हारा साथ और अब की तन्हाई पता नहीं क्या कहर बरसायेगी ?

उनसे कैसे बचूं यह अभी तक समझ नहीं आया

पल, दिन, महीने साल सब एक आंधी में खुली किताब के पन्नो की तरह पलटते जा रहे है और मैं उस किताब के पन्नो को संभालने की कोशिश कर रहा हूँ

वो आंधी पन्ने आगे पलटती जा रही है और मैं तुम्हारे साथ वाले रंगीन पन्नो पर से हाथ और नज़र दोनों ही नहीं हटा पा रहा हूँ

मैं डरता हूँ तुम्हारे जाने के बाद उन काले पन्नो को देखने से भी 

पता नहीं दिल और दिमाग में क्या जंग सी है ?



ज़ख़्मी दिल उस एक एक याद को संभाल कर रखना चाहता है जो तुमसे जुड़ी है, पता नहीं ये चोट कभी ताउम्र भर भी पायेगी की नहीं

मैं डरता हूँ और टूट जाने से...

दुनिया कहती है आगे बढ़, फिर से इश्क करले मगर यह दिल नादान है, इश्कबाजी में खेलना इसे नहीं आता

या तो किसी को टूटने की हद्द तक चाहता है या फिर किसी को अपने आस पास आने भी नहीं देता

वो तो अभिमन्यु का चक्रव्यूह था जिसमें वो निकल न सका तो कम से कम शहीद तो हुआ

मेरा यह कौनसा चक्रव्यूह है जिसमें से न मैं निकल पा रहा हूँ और न ही शहादत मिल रही है ?

सिर्फ यादें ही हैं जो पांडवों की तरह अपनी भी हैं और कौरवों की तरह दुश्मन भी

मैं बेबस हूँ..

जीते जी मार ही देंगी यह यादें...

तुम्हारी यादें, जिनके सहारे पल पल बीत रहा है बस.

मैं डरता हूँ... अब यादों से भी


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