अगर बोल सकता तो मेरा हर एहसास एक किताब होता
कोरे पन्नो की इक दास्ताँ
वक़्त के खिंचे हाशिये , लोगों की स्याही , जज्बातों , तजुर्बों के अल्फाज़
उंगलियों के बीच सूखी रेत की तरह फिसलते , हर बीते पल को पकड़ कर फिर जीने की एक अधूरी ख्वाहिश
वक़्त न रुका था तब, न रुक रहा है अब
रुकते हैं तो बस कदम, आगे बढ़ने से कभी कभी
पुराना वक़्त सोच के
चाँदनी रात पे दिल को सुकून देने वाली ठंडी हवा के झोंके की तरह
हाशिये के एक तरफ वक़्त तारीखों से पट गया, दूसरी तरफ किस्से यूँ ही लिख गए
कभी अचार की तरह खट्टे, कभी गुड़ की तरह मीठे , कभी पकौड़ी के साथ वाली हरी चटनी की तरह झटके वाली तेज़ी
हर दिन टिफ़िन के डब्बे नहीं , किस्सों को जब्ज़ करने वाले एहसास खुले
बंद हुए तो हर खांचे में बस ठहाके, और ज़्यादा कुछ नहीं....
किस्से लिखते लिखते किताब तो भर गयी मगर स्याही और तजुर्बे अभी बाकी हैं
गीत खत्म हो गया मगर धुन अभी बाकी है
सुनने वालों की तालियाँ बज रही हैं, मगर कलाकार की नज़्म अभी आधी बाकी है
अलविदा बस एक शब्द है मगर फिर से अकेले होने की चोट का दर्द अभी जाना बाकी है
अगर बोल सकता तो मेरा हर एहसास एक किताब होता............
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