लोगों को चीज़ों के लिए चप्पल वगैरह घिसते तो सुना होगा मगर क्या आपने यह सच में किया है ? तो आईये चलिए आपबीती के दूसरे खुराफाती किस्से पे..
बाकी शहरों कि तरह मेट्रो की खुदाई ने लखनऊ का भी बेड़ा गर्क कर दिया है और इसी वजह से लगते हैं लम्बे लम्बे जाम. बात चंद दिन पहले की है. स्टेशन से घर लौट रहा था .. सीधी सीधी दूरी 12 km है मगर अब डायवर्सन की वजह से 15 मान लो. तो सबसे बड़े चौराहे हजरतगंज तक बिना किसी नाटक के पहुँच गए एक्टिवा से. पापा तफरी में गाड़ी तो ले आये मगर पेट्रोल की सुई न देखे थे. स्टेशन पे सुई रिज़र्व की शुरुवात पे थी यानी कि 1.5 लीटर मगर कमबख्त थोड़ी खराब है तो सही हिसाब पता नहीं लग पाता. खैर गंज से 2 रास्ते हैं घर को – एक तो सीधा निकल लो या मेट्रो से चक्कर में थोड़ी खराब सड़क से गंज से बीच से होते हुए निकल लो जोकि कोई 5 km लम्बा रास्ता है. अब न जाने उस दिन शाम को क्या बात हुई कि बारिश न होते हुए भी भयंकर जाम . हम पहले ही कुछ ताड़ गए थे जो बायें से काटने के मूड में थे मगर अपनी धुन में सवार पापा, “ न सीधे चलो अब कोई जाम नहीं होगा “. चौराहा पार करके कोई 250 m आगे गए होंगे कि लग गयी लंका- लंबा जाम. पीछे आसानी से मुड़ भी नहीं सकते क्यूंकि गाड़ियां आ गयी हैं पीछे.
अब सुई देखकर मेरे पसीने छूट रहे हैं कि अगर टंकी खाली हो गयी तो घर से इतनी दूर हैं कि कहानी हो जाएगी.. मोहल्ले से पहले रूट पे सिर्फ 1 पंप है मगर वो भी सड़क के दूसरी तरफ और जाम इतना है कि.. उस दिन ट्रैफिक इतना खराब था कि 100m चलने में 45 मिनट लग गए थे. वो तो शुक्र है कि मैं मौका मिलते ही गाड़ी बंद कर दे रहा था मगर इतने हौले ट्रैफिक में भी इतना ब्रेक लगाना पड़ रहा था कि मुझे लगा कि सारी टंकी ब्रेक में ही निपट जाएगी. तो रो धो कर पहुंचे गोमती के पुल पर और रेंगते हुए ट्रैफिक को देखते ही मेरा दिमाग सनका और समझ आया कि कोई दूसरा रास्ता लेना पड़ेगा वरना घर न पहुँचने वाले. यकीन करेंगे कि घर से सिर्फ 5 km दूर मैंने गाड़ी मोड़ कर मैंने लम्बा वही हज़रतगंज के बीच वाला लम्बा रूट लिया ताकि मुझे खाली सड़क मिले और ब्रेक न लगाना पड़े. हाथ accelerator कण्ट्रोल पे, निगाह सुई के इकोनोमी mode पे और गाडी को रोकने के लिए मैं लड़कियों कि तरह पैरों से रोक रहा था .सड़क तो खाली मिल गयी मगर लखनऊ यूनिवर्सिटी रोड से आगे तक का रास्ता वही मेट्रो की भेंट और मैं हर आगे गाड़ी वाले के पीछे पागलों की तरह हॉर्न बजा रहा था, जूते घिस रहा था यहाँ तक कि लड़कियों के पीछे भी हॉर्न बजाये जा रहा था कि झल्लाकर सब मुझे साइड दे दें क्यूंकि रुकना मैं अफ्फोर्ड नहीं कर सकता .
जूते घिसते घिसते, हॉर्न मारते मारते मैं जानबूझकर उस चौराहे से निकला जो 1 km ज्यादा था मगर जहां पंप था... अगर टंकी उस सड़क पे भी खाली होती तो घसीट लेते. जब पंप पे टंकी खोली तो मुश्किल से कोई 100 ml से ज्यादा तेल नहीं होगा- यानी बिलकुल ऐन मौके पे पहुंची. पापा तब बोले, ”गलती हो गयी यार , पहले ही बायें काट लेते तो अब तक कबका घर पहुँच चुके होते ”. उस 1.5 लीटर ने उस दिन मेरे जूते पूरी तरह से घिसवा दिए, कंधे दर्द करे सो अलग और घर पहुचने में लगा 2.5 घंटा..
आपबीती : पेट्रोल के लिए जूते घिस दिए
Reviewed by Shwetabh
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10:44:00 AM
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